आज फिर
मौसम को
पुराना दौरा उभर आया है।
गीले ईधंन की तरह
सुलग सुलग
बच बच कर
जलने वाली जिंदगी
अपने धुआँसे अरमानों के साथ
फिर सुगबुगाने लगी है।
शीत लहरियों की मारी
भविष्यत् की सारी अँखुआई उम्रें
फिर से भरने लगीं
मानों सचमुच
बसंत आ गया।
लेकिन
धीरे-धीरे
पारसाल की तरह
यह दौरा
अभी और बढ़ेगा
और दसी पाँच दिनों में
हाथी पर बैठे
अपने-अपने दादाओं की जय बोलते
ये अनपढ़ गँवार बाराती
नशे में चूर
मुँह में कालिख पोते
एक दूसरे पर कीचड़ उछालते
गधों पर उतर कर
बाबा कबीरदास की जय बोलेंगे।
बिना समझे-बुझे
इन अज्ञानी तत्वज्ञानियों के हुड़दंग में
बढ़ते-बढ़ते
सारा संवत्सर मिट जाएगा।
इसलिए
पेट की पंचाग्नि में तपी तपायी
औ ऋतुमती संभवनाओं
भगो
मौसम के इस बेढ़ब बेतुके दौर से भी बचो
वह दिन भी आएगा
जब शीघ्र ही
यह उत्पाती ग्लोब
नाचते नाचते
खुद-बखुद
अपनी धुरी से खिसक जाएगा
और फिर
समय के संयोग से
ऋतुपति तुम्हें बरेगा
तुम्हारा आँचल भरेगा।